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chane ki buwai

चने की खेती कैसे करें एवं चने की खेती के लिए जानकारी

चने की खेती कैसे करें एवं चने की खेती के लिए जानकारी

यह कहावत आज भी ग्रामीण भारत में प्रचलित है। कच्चा चना घोडे को खिलाया जाता है, जो बेहद श्रमसाध्य काम करता है वहीं भुना हुआ चना बीमार मरीज को खिलाया जाता है जिनको कि लीबर में समस्या हो। यानी कि चना हर तरीके से और हर श्रेणी के मनुष्य और पशु दोनों के लिए उपयोगी है। चने की खेती यूंतो हर तरह की भारी मिट्टी में होती है लकिन जिन इलाकों में चने की खेती करना किसानों ने बंद कर दिया है वहां इसकी खेती एक दो किसानों के करने से तोता जैसे पक्षी ज्यादा नुकसान करते हैं। चना बहुत गुणकारी होता है। यह सभी जानते हैं लेकिन इसकी खेती के लिए कई चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। नए किसान भाईयों के लिए यह जानना जरूरी है कि चने की खेती कैसे की जाती है। 

चने की खेती

चने की खेती के लिए हल्की दोमट या दोमट मिट्टी अच्छी होती है। भूमि में जल निकास की उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिये। भूमि में अधिक क्षारीयता नहीं होनी चाहिये।  फसल को दीमक एवं कटवर्म के प्रकोप से बचाने के लिए अन्तिम जुताई के समय हैप्टाक्लोर (4 प्रतिशत) या क्यूंनालफॉस (1.5 प्रतिशत) या मिथाइल पैराथियोन (2 प्रतिशत) चूर्ण की 25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में अच्छी प्रकार मिलाना चाहिये। चने में अनेक प्रकार के कीट एवं बीमारियां हानि पहुँचाते हैं। इनके प्रकोप से फसल को बचाने के लिए बीज को उपचारित करके ही बुवाई करनी चाहिये। बीज को फफूंदनाशी कार्बन्डाजिम आदि, कीटनाशक कोई भी एक एवं राजोबियम कल्चर से उपचारित करें। बीज को उपचारित करके लिए एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ को गर्म करके ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस घुलनशील जीवाणु को अच्छी प्रकार मिलाकर उसमें बीज उपचारित करना चाहिये। तदोपरांत छांव में सुखाकर बीज की बिजाई करें। 

चने की बुबाई का समय

असिचिंत क्षेत्रों में चने की बुवाई अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े में कर देनी चाहिये। जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर बुवाई 30 अक्टूबर तक अवश्य कर देनी चाहिये। बारानी खेती के लिए 80 कि.ग्रा. तथा सिंचित क्षेत्र के लिए 60 कि.ग्रा. बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होती है। बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 से.मी. तथा सिंचित क्षेत्र के लिए बीज की बुवाई 5 से 7 से.मी. होनी चाहिये। फसल की बुवाई सीड ड्रिल से करनी चाहिए। 

चने की खेती में खाद एवं उर्वरक कितना डालें

  chane ki kheti 

 किसी भी दलहनी फलस को उर्वरकों की बेहद कम आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन फिक्सेसन का काम दलहनी पौधों की जड़ों द्वारा खुद किया जाता है फिर भी उर्वकर प्रबंधन आवश्यक है। पौधों के प्रारंभिक विकास के लिए20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिये। एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए 2.5 टन कस्पोस्ट खाद को भूमि की तैयारी के समय अच्छी प्रकार से मिट्टी में मिला देनी चाहिये।

 

अच्छी पैदाबार के लिए चने की उन्नत किस्में

    chane ki kisme 

 विविधताओं वाले देश में अनेक तरह की पर्यावरणीय परिस्थिति हैं। इनके अनुरूप ही वैज्ञानिकों ने चने की उन्नत किस्मों का विकास किया है। एनबीईजी 119 किस्म 95 दिन में पक कर 19 कुंतल उपज देती है। इसे कर्नाटक, एपी, तमिलनाडु में लगाया जा सकता है। फुले विक्रांत किस्म 110 दिन में तैयार होकर 21 कुंतल उपज देती है। महाराष्ट्र, वेस्ट एमपी एवं गुजरात में लगाने योग्य। अरवीजी 202 किस्म 100 दिन में 20 कुंतल एवं अरवीजी 203 किस्म 100 दिन में 19 कुंतल उपज देती है। उक्त क्षेत्रों में बिजाई योग्य। 

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 एचसी 5 किस्म 140 दिन में 20 कुंतल उपज एवं पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तराखण्ड में बोने योग्य। जीबीएम 2 किस्म 110 दिन में 20 कुंतल उपज एवं कर्नाटक, एनबीईजी 47 किस्म 95 दिन में 25 कुंतल प्रति हैक्टेयर तक उपज देती है। आंध्र प्रदेश में लगाने योग्य। फुले जी 115 दिन में 23 कुंतल, बीजी 3062 किस्म 118 दिन में 23 कुंतल, जेजी 24 किस्म 110 दिन में 23 कुंतल तक उपज देती हैं। उक्त किस्मों को महाराष्ट्र, एमपी, गुजरात, यूपी, दक्षिणी राजस्थान आदि क्षेत्रों में लगाया जा सकता है। 

चने की खेती के लिए सिंचाई  

 chnae ki sinchai 

 सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो नमी की कमी होने की स्थिति में एक या दो सिंचाई की जा सकती है। पहली सिंचाई 40 से 50 दिनों बाद तथा दूसरी सिंचाई फलियां आने पर की जानी चाहिये। सिचिंत क्षेत्रों में चने की खेती के लिए 3 से 4 सिंचाई पर्याप्त होती है। पहली सिंचाई फसल की निराई करने के बाद 35-40 दिन बाद,  70-80 दिन बाद दूसरी एवं 105-110 दिनों बाद अन्तिम सिंचाई करनी चाहिये।

चने में खरपतवार नियंत्रण   chana kharatpwar 

 चने में बथुआ, खरतुआ, मोरवा, प्याजी, मोथा, दूब इत्यादि उगते हैं। ये खरपतवार फसल के पौधों के साथ पोषक तत्वों, नमी, स्थान एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करके उपज को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त खरपतवारों के द्वारा फसल में अनेक प्रकार की बीमारियों एवं कीटों का भी प्रकोप होता है जो बीज की गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं। 

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बचाव के लिए चने की फसल में दो बार गुड़ाई करना पर्याप्त होता है। प्रथम गुड़ाई फसल बुवाई के 30-35 दिन पश्चात् व दूसरी 50-55 दिनों बाद करनी चाहिये। यदि मजदूरों की उपलब्धता न हो तो फसल बुवाई के तुरन्त पश्चात् पैन्ड़ीमैथालीन की 2.50 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर खेत में समान रूप से मशीन द्वारा छिड़काव करना चाहिये। फिर बुवाई के 30-35 दिनों बाद एक गुड़ाई कर देनी चाहिये।

 

चने के कीट एवं रोग

यदि खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप हो तो क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 2 से 3 लीटर मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से सिंचाई के साथ देनी चाहिये। ध्यान रहे दीमक के नियन्त्रण हेतु कीटनाशी का जड़ों तक पहुँचना बहुत आवश्यक है। कटवर्म की लटें ढेलों के नीचे छिपी होती है तथा रात में पौधों को जड़ों के पास काटकर फसल को नुकसान पहुँचाती हैं। कटवर्म के नियंत्रण हेतु मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत या क्यूनालफास 1.50 प्रतिशत चूर्ण की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव शाम के समय करना चाहिये।

 

फली छेदक

  fali chedak 

 यह कीट फली के अंदर घुस कर दानों को खा जाता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु फसल में फूल आने से पहले तथा फली लगने के बाद क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत चूर्ण की 20-25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकना चाहिये। पानी की उपलब्धता होने पर मोनोक्रोटोफॉस 35 ईसी या क्यूनॉलफोस 25 ईसी की 1.25 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से फसल में फूल आने के समय छिड़काव करना चाहिये। 

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झुलसा रोग (ब्लाइट)

यह बीमारी एक फफूंद के कारण होती है। इस बीमारी के कारण पौधें की जड़ों को छोड़कर तने पत्तियों एवं फलियों पर छोटे गोल तथा भूरे रंग के धब्बे बन जाते है। पौधे की आरम्भिक अवस्था में जमीन के पास तने पर इसके लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। पहले प्रभावित पौधे पीले व फिर भूरे रंग के हो जाते है तथा अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब नामक फफूंदनाशी की एक कि.ग्रा. या घुलनशील गन्धक की एक कि.ग्रा. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 कि.ग्रा.मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 10 दिनों के अन्तर पर 3-4 छिड़काव करने पर्याप्त होते है।


 

उखटा रोग (विल्ट)

  ukhta rog 

 इस बीमारी के लक्षण जल्दी बुवाई की गयी फसल में बुवाई के 20-25 दिनों बाद स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। देरी से बोई गयी फसल में रोग के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। पहले प्रभावित पौधे पीले रंग के हो जाते हैं तथा नीचे से ऊपर की ओर पत्तियाँ सूखने लगती हैं अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के नियन्त्रण हेतु भूमि में नमी की कमी नही होनी चाहिये। यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही सिंचाई कर देनी चाहिये। रोग रोधी किस्मों जैसै आरएसजी 888ए सी 235 तथा बीजी 256 की बुवाई करनी चाहिये। 

किट्ट (रस्ट)

इस बीमारी के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। पत्तियों की ऊपरी सतह पर फलियों पर्णवृतों तथा टहनियों पर हल्के भूरे काले रंग के उभरे हुए चकत्ते बन जाते हैं। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेन्कोजेब नामक फफूंदनाशी की एक कि.ग्रा. या घुलनशील गन्धक की एक कि.ग्रा. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 कि.ग्रा. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 

पाले से फसल का बचाव

  chane ki khetti 

 चने की फसल में पाले के प्रभाव के कारण काफी क्षति हो जाती है। पाले के पड़ने की संम्भावना दिसम्बर-जनवरी में अधिक होती है। पाले के प्रभाव से फसल को बचाने के लिए फसल में गन्धक के तेजाब की 0 .1 प्रतिशत मात्रा यानि एक लीटर गन्धक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेत के चारों और धुआं करना भी लाभदायक रहता है।

धमाल मचा रही चने की नई किस्में

धमाल मचा रही चने की नई किस्में

चने की खेती कई राज्यों में प्रमुखता से की जाती है। इसकी खेती के लिए दोमट, भारी दोमट, मार एवं पड़वा भूमि जहां जल निकासी की व्यवस्था अच्छी हो ठीक रहती है।

अच्छे उत्पादन के लिए ध्यान देने योग्य बातें

Chane ki fasal चने की खेती के लिए खेत की अच्छी तरह से जुताई करके पाटा लगा दें। सिंचित अवस्था में बीज दर 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखते हैं वही सामान्य दाने वाली किस्मों में बीज दर 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखते हैं। मोटे दाने वाली बारानी अवस्था में बोई जाने वाली किस्म का बीज 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए वही सामान्य दाने वाली किस्मों का बीज 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग में लेना चाहिए। लाइन से लाइन की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर एवं बीज की गहराई 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। मोबाइल मध्य अक्टूबर से नवंबर के पहले हफ्ते तक कर लेनी चाहिए।

उर्वरक संबंधी जरूरतें

किसी फसल के लिए उर्वरक का प्रबंधन बेहद आवश्यक होता है। चने की खेती के लिए नाइट्रोजन फास्फोरस गंधक एवं चिन्ह 20, 50, 20 और 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन

यदि बरसात न हो तो चने की खेती में पहली सिंचाई 45 दिन के बाद एवं दूसरी सिंचाई 75 दिन के बाद करनी चाहिए। खरपतवार नियंत्रण के लिए एक किलोग्राम पेंडामेथालिन दवा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर मोबाइल के बाद और अंकुरण से पूर्व यानी कि 36 घंटे के अंदर खेत में छिड़काव करने से खरपतवार नहीं उगते।

चने की उन्नत किस्में

Chane ki kheti पूसा 2085 चने की काबुली किसमें है जो उत्तरी भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दिल्ली के लिए संस्तुत की गई है।सिंचित अवस्था में यह किस्म 20 क्विंटल तक प्रति हेक्टेयर में उत्पादन देती है।इसके दानी एक समान आकर्षक चमकीले व हल्के भूरे रंग के होते हैं बड़े आकार वाले दाने होने के कारण यह चना बेहद खूबसूरत लगता है।  प्रोटीन की मात्रा अधिक है । अन्य लोगों को भी इसमें कम लगते हैं। यह किस्म मृदा जनित बीमारियों के लिए प्रतिरोधी है। पूसा की दूसरी किस्म हरा चना 112 नंबर है। सिंचित अवस्था में समय पर बोली जाने वाली एप्स 23 कुंटल तक उपज देती है। यह किस्म विभिन्न तरह के दबाव को झेलने में सक्षम है इसके चलते सीमांत किसानों के लिए यह बेहद लाभकारी है। पूसा 5023 काबली श्रेणी का चना है। सिंचित अवस्था में यह 25 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज देता है। इसका दाना अत्यधिक मोटा है और उकठा बीमारी के प्रति यह मध्यम अब रोधी है। पूसा 5028 देसी सिंचित अवस्था में 27 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज देने वाली किस्मे पूसा 547 देसी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में बोली जाने योग्य किसमें है। सिंचित अवस्था में पछेती दुबई के लिए यह किसने उपयुक्त है और 18 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है। पकने की अवधि 135 दिन है। यह किस जंड गलन, वृद्धि रोधी रोगों,  फली छेदक के प्रति सहिष्णु है। पूसा चमत्कार किस्म दिल्ली हरियाणा पंजाब राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश में सिंचित अवस्था में पाए जाने पर 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है। यह मर्दा जनित रोगों को लेकर प्रतिरोधी है। पकने में 145 से 150 दिन का समय लेती है। पूसा 362 देसी किस्म उत्तर भारत में सामान्य पछेती बुवाई के लिए संस्कृत की गई है और इससे 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती है। यह किसने सूखे के प्रति सहिष्णु है तथा पकाने के लिए बहुत अच्छी है । पकने में 155 दिन का समय लेती है। पूसा 372 देसी किस्म दिल्ली पंजाब हरियाणा राजस्थान उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश बिहार महाराष्ट्र और गुजरात में सिंचित व बारानी क्षेत्रों में पछेती बुवाई के लिए संस्तुत की गई है। इससे पछेती बुवाई पर 18 से 22 क्विंटल एवं सामान्य बुवाई की दशा में 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है। ऊषा सुभ्रा 128 मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड तथा राजस्थान के सीमावर्ती देशों में भूमि योग्य है।यह सिंचित अवस्था में पक्षी की बुवाई के लिए है और 17 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। मृदा जनित बीमारियों से मध्यम प्रतिरोधी है।मशीनी कटाई के लिए उपयुक्त है 110 से 15 दिन में पक्का तैयार हो जाती है। पूसा धारवाड़ प्रगति बीजीडी बेहतर किस्म मध्य प्रदेश महाराष्ट्र गुजरात उत्तर प्रदेश बुंदेलखंड एवं राजस्थान में होने योग्य है। बारानी क्षेत्रों में यह किस में 22 से 28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। सूखा प्रतिरोधी यह किस मोटे दाने वाली और 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पूसा काबुली 2024 सिंचित अवस्था को बारानी क्षेत्रों में 25 से 28 कुंटल उपस्थिति है 145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पूसा 1108 काबुली सिंचित अवस्था में समय पर बुवाई करने पर 25 से 30 कुंटल उपज देती है और अधिकतम डेढ़ सौ दिन में पक जाती है। पूसा काबली 1105 किस्म सिंचित अवस्था में सामान्य बुवाई के लिए है और 25 से 30 क्विंटल तक उपज देती है। दक्षिण भारत में 120 दिन तथा उत्तर भारत में 145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पूसा 1103 देसी किस्म पछेती बुवाई के लिए है और 20 से 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है और पकने में 130 से 140 दिन का समय लेती है। उत्तर भारत में धान आधारित फसल चक्र के लिए यह उपयोगी है। पूसा 1128 काबुली 12 न्यू सिंचित क्षेत्र में बुवाई के लिए है अभी से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। मृदा जनित रोग प्रतिरोधी है, उच्च सूखा शहष्णु व 140 दिन में पक जाती है। अमरोदी कृष्ण संपूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए है। यह 25 से 30 क्विंटल उपज देती है। के डब्ल्यू आर 108 भी संपूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए है। यह 135 दिन में पक्के 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। के आंसू 50 किस्म संपूर्ण मैदानी क्षेत्र के लिए है। ऊपज 25 से 30 क्विंट देती है। डब्लू सीजी1 किस्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 25 से 30 क्विंटल उपज देती है और 145 दिन में पकती है। एचके 94-134 किस्म संपूर्ण उत्तर प्रदेश में बोई जाने वाली काबुली चने की किस्में है। यह पृथ्वी से 30 क्विंटल उपज देती है और 145 दिन में पकती है। खरीफ के मौसम की दलहनी फसलें मूंग, उड़द एवं ज्वार की फसल खरीफ सीजन में लगाई जाती है। भारत में कई स्थानों पर उड़द एवं मूंग जायद के सीजन में भी लगाई जाती है।
जानिए चने की बुआई और देखभाल कैसे करें

जानिए चने की बुआई और देखभाल कैसे करें

चने की दाल, बेसन, हरे चने, भीगे चने, भुने चने, उबले चने, तले चने की बहुत अधिक डिमांड हमेशा रहती है। इसके अलावा चने के बेसन से नमकीन व मिठाइयां सहित अनेक व्यंजन बनने के कारण इसकी मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इससे चने के दाम भी पहले की अपेक्षा में काफी अधिक हैं। किसान भाइयों के लिए चने की खेती करना फायदे का सौदा है।

कम मेहनत से अधिक पैदावार

चने की खेती बंजर एवं पथरीली जमीन पर भी हो जाती है। इसकी फसल के लिए सिंचाई की भी अधिक आवश्यकता नहीं होती है। न हीं किसान भाइयों को इसकी खेती के लिए अधिक मेहनत ही करनी पड़ती है लेकिन इस की खेती की निगरानी अवश्य ही अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक करनी होती है। आइये जानते हैं कि चने की बुआई किस प्रकार से की जाती है।

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असिंचित क्षेत्रों में होती है अधिकांश खेती

रबी के सीजन की यह फसल असिंचित क्षेत्रों में अधिक की जाती है जबकि सिंचित क्षेत्रों में चने की खेती कम की जाती है। सिंचित क्षेत्र में काबुली चने की खेती अधिक की जाती है। शरदकालीन फसल होने की वजह से से इसकी खेती कम वर्षा वाले तथा हल्की ठंडक वाले क्षेत्रों में की जा सकती है। चने की खेती के लिए दोमट व मटियार भूमि सबसे उत्तम मानी जाती है लेकिन दोमट, भारी दोमट मार, मडुआ, पड़आ, पथरीली, बंजर भूमि पर भी चने की  खेती की जा सकती है। काबुली चना के लिए अच्छी भूमि चाहिये। दक्षिण भारत में मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में काबुली चने की फसल की जाती है। इस तरह की मिट्टी में नमी अधिक और लम्बे समय तक रहती है। ढेलेदार मिट्टी में भी देशी चने की फसल ली जा सकती है। इसलिये देश के सूखे पठारीय क्षेत्रों में चने की खेती अधिकता से की जाती है।  चने की खेती वाली जमीन के लिए यह देखना होता है कि खेत में पानी तो नहीं भरा रहता है। जलजमाव वाले खेतों में चना की खेती नहीं की जा सकती है। ढलान वाले खेतों में भी चने की खेती की जा सकती है। खेत को तैयार करने के लिए किसान भाइयों को चाहिये कि पहली बार जुताई मिट्टी को पलटने वाले हल से करनी चाहिये। उसके बाद क्रास जुताई करके पाटा लगायें। चने की फसल के बचाव हेतु दीपक एवं कटवर्म के रोधी कीटनाशक का इस्तेमाल अंतिम जुताई के समय करें। उस समय हैप्टाक्लोर चार प्रतिशत या क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत अथवा मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत अथवा एन्डोसल्फॉन 1.5 प्रतिशत चूर्ण को 25 किलो मिट्टी में में अच्छी प्रकार से मिलाएं फिर खेत में फैला दें।

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बुआई कब करें

चने की बुआई के समय की बात करें तो उत्तर भारत में चने की बुआई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में होती है। वैसे देश के मध्य भाग में इससे पहले भी चने की बुआई शुरू हो जाती है। सिंचित क्षेत्र में चने का बीज प्रति हेक्टेयर 60 किलो तक लगता है। काबुली चना का बीज 80 से 90 किलो प्रति हेक्टेयर लगता है तथा छोटे दानों वाली चने की किस्मों की खेती में असिंचित क्षेत्र के लिए 80 किलो तक बीज बुआई में लगता है। अधिक पैदावार लेने के लिए तथा पछैती फसल के लिए 20 से 25 प्रतिशत तक अधिक बीज का उपयोग करना होगा। चने की खेती को अनेक प्रकार के कीट व रोग नुकसान पहुंचाते हैं। इस नुकसान से पहले चने की बुआई से पहले बीज का उपचार व शोधन करना होगा। किसान भाइयों सबसे पहले चने के बीज को फफूंदनाशी, कीटनाशी और राजोबियम कल्चर से उपचारित करें।  चने की खेती को उखटा व जड़ गलन रोग से बचाव करने के लिए बीज को कार्बेन्डाजिम या मैन्कोजेब या थाइरम की 2 ग्राम से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें। दीपक व अन्य भूमिगत कीटों से बचाने के लिए क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 8 मिलीलीटर मात्रा से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें। इसके बाद राइजोबियम कल्चर के तीन व घुलनशील फास्फोरस जीवाणु के तीन पैकेटों से बीजों को उपचारित करें। बीज को उपचारित करने के लिए 250 ग्राम गुड़ को एक लीटर पानी में गर्म करके घोले और उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस के घुलनशील जीवाणु को अच्छी प्रकार से मिलाकर बीज उपचारित करें। उपचार करने के बाद बीजों को छाया में सुखायें। किसान भाई चने की बुआई करते समय पौधों का अनुपात सही रखें तो फसल अच्छी होगी। अधिक व कम पौधों से फसल प्रभावित हो सकती है। सही अनुपात के लिए बीज की लाइन से लाइन की दूरी एक से डेढ़ फुट की होनी चाहिये तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर होनी चाहिये। बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 सेंटीमीटर अच्छी मानी जाती है और सिंचित क्षेत्र के लिए ये गहराई 5 से 7 सेंटी मीटर ही अच्छी मानी जाती है। चने की खेती की देखभाल कैसे करें

चने की खेती की देखभाल कैसे करें

सबसे पहले किसान भाइयों को चने की खेती की बुआई के बाद खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान देना होगा क्योंकि खरपतवार से 60 प्रतिशत तक फसल खराब हो सकती है। बुआई के तीन दिन बाद खरपतवार नासी डालें। उसके 10 दिन बाद फिर खेत का निरीक्षण करें यदि खरपतवार दिखता है तो उसकी निराई गुड़ाई करें। इस दौरान पौधों की उचित दूरी का अनुपात भी सही कर लें। अधिक घने पौधे हों तो पौधों को निकालकर उचित दूरी बना लें। साथ ही गुड़ाई कर लें ताकि चने के पौधों की जड़ें मजबूत हो जायें।

सिंचाई प्रबंधन

चने की फसल का अधिक पानी भी दुश्मन होता है। अधिक पानी से पौधों की बढ़वार अधिक लम्बी हो जाती है, जिससे चने कम आते हैं और हवा आदि से पेड़ गिरकर नष्ट भी हो जाते हैं। इसके अलावा खेत में यदि पानी भरता हो तो बरसात होने के समय सावधानी बरतें और जितनी जल्दी हो सके पानी को खेत से निकालें। चने की फसल में बहुत जरूरत होने पर एक सिंचाई कर दें। यदि वर्षा हो जाये तब जमीन की नमी को परखें उसके बाद ही सिंचाई करें।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

आम तौर पर चने की खेती के लिए 40 किलो फास्फोरस, 20 किलो पोटाश, 20 किलो गंधक, 20 किलो नाइट्रोजन का इस्तेमाल किया जाता है। जिन क्षेत्रों की मिट्टी में बोरान अथवा मोलिब्डेनम की मात्रा कम हो तो वहां पर किसान भाइयों को 10 किलोग्राम बोरेक्स पाउडर या एक किलो अमोनियम मोलिब्डेट का इस्तेमाल करना चाहिये। असिंचित क्षेत्रों में नमी में कमी की स्थिति में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव फली बनने के समय करें।

कीट नियंत्रण के उपाय करें

चने की फसल में मुख्य रूप से फली छेदक कीट लगता है। पछैती फसलों में इसका प्रकोप अधिक होता है। इसके नियंत्रण के लिए इण्डेक्सोकार्ब, स्पाइनोसैड, इमाममेक्टीन बेन्जोएट में से किसी एक का छिड़काव करें। नीम की निबौली के सत का भी प्रयोग कर सकते हैं। इसके अलावा दीमक, अर्द्धकुण्डलीकार, सेमी लूपर कीट लगते हैं। इनका उपचार समय रहते करना चाहिये। चने की खेती में रोग एवं रोकथाम

रोग एवं रोकथाम

1.चने की खेती में उकठा या उकड़ा रोग लगता है। यह एक तरह का फफूंद है और यह मिट्टी या बीज से जुड़ी बीमारी है। इस बीमारी से पौधे मरने लगते हैं। इससे बचाव के लिए समय पर बुआई करें। बीज को गहराई में बोयें। 2.ड्राई रूट रॉट का रोग मिट्टी जनित रोग है। इइस बीमारी के प्रकोप से पौधों की जड़ें अविकसित एवं काली होकर सड़ने और टूट जाती है। इस तरह से पूरा पौधा ही नष्ट हो जाता है। बाद में पौधा भूसे के रूप में बदल जाता है। 3.कॉलर रॉट रोग से पौधे पीले होकर मर जाते हैं। यह रोग बुआई के डेढ़ माह बाद ही लगना शुरू हो जाता है। कांबूडाजिम के या बेनोमिल के घोल से छिड़काव करें। इसके अलावा चांदनी, धूसर फफूंद, हरदा रोग, स्टेम फिलियम ब्लाइट, मोजेक बौना रोग चने की फसल को नुकसान पहुंचाती है।
चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग।पौधे के जमीन के ऊपर के सभी हिस्सों को ये रोग प्रभावित करता है। पत्ते पर, घाव गोल या लम्बे होते हैं, अनियमित रूप से दबे हुए भूरे रंग के धब्बे होते हैं

चने की फसल के प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

1.एस्कोकाइटा ब्लाइट

पौधे के जमीन के ऊपर के सभी हिस्सों को ये रोग प्रभावित करता है। पत्ते पर, घाव गोल या लम्बे होते हैं, अनियमित रूप से दबे हुए भूरे रंग के धब्बे होते हैं, और एक भूरे लाल किनारे से घिरे होते हैं। इसी तरह के धब्बे तने और फलियों पर दिखाई दे सकते हैं। जब घाव तने को घेर लेते हैं, तो हमले के स्थान के ऊपर का हिस्सा तेजी से मर जाता है। यदि मुख्य तना घाव से भर जाये , तो पूरा पौधा मर जाता है।



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प्रबंधन

खेत में संक्रमित पौधों के अवशेषों को हटाकर नष्ट कर देना चाहिए। बीजों को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम/किग्रा से उपचारित करें। मैंकोजेब 0.2% का छिड़काव करें। अनाज के साथ फसल चक्र अपनाएं। प्रतिरोधक किस्में जैसे .C235, HC3,HC4 की बुआई करें।



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2. उखेड़ा

लक्षण

यह रोग फसल के विकास के दो चरणों में होता है, अंकुर चरण और फूल चरण। अंकुरों में मुख्य लक्षण आधार से ऊपर की ओर पत्तियों का पीला पड़ना और सूखना, पर्णवृन्तों और रैचियों का गिरना, पौधों का मुरझाना है। वयस्क पौधों के मामले में पत्तियों का गिरना शुरू में पौधे के ऊपरी भाग में देखा जाता है, और जल्द ही पूरे पौधे में देखा जाता है। गहरा भूरा या काला मलिनकिरण क्षेत्र पत्तियों के नीचे तने पर देखा जाता है और उन्नत चरणों में पौधे को पूरी तरह से सूखने का कारण बनता है। गहरा भूरापन स्पष्ट रूप से तने पर काली धारियों और छाल के नीचे जड़ वाले भाग के रूप में देखा जाता है।

प्रबंधन

  • बीज को कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित करें।
  • ट्राइकोडर्मा विरिडे 4 ग्राम/किग्रा +1 ग्राम/किग्रा विटावैक्स के साथ बीज का उपचार करें।
  • स्यूडोनोमास फ्लोरेसेंस @ 10 ग्राम/किलोग्राम बीज। भारी मात्रा में जैविक खाद या हरी खाद का प्रयोग करें।
  • HC 3, HC 5, ICCC 42, H82-2, ICC 12223, ICC 11322, ICC 12408, P 621 और DA1 जैसी प्रतिरोधी किस्मों को उगाएँ।

3. वायरस (virus)

लक्षण

प्रभावित पौधे बौने और झाड़ीदार होते हैं और छोटी गांठें होती हैं। पत्ते पीले, नारंगी या भूरे मलिनकिरण के साथ छोटे होते हैं। तना भूरे रंग का मलिनकिरण भी दिखाता है। पौधे समय से पहले सूख जाते हैं। यदि जीवित रहते हैं, तो बहुत कम छोटी फलियाँ बनती हैं।वायरस चपे द्वारा फैलता है। इस रोग की रोकथाम के लिए सब से पहले चेपे का प्रबंधन करना है इस के लिए मोनोक्रोटोफॉस 200 ml /अकड़ के हिसाब से फसल में छिड़काव करे। संक्रमित पौधों को उखाड़ के निकाल दें और नष्ट करदे।



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4. तना गलन

लक्षण

तना गलन प्रारंभिक अवस्था में अर्थात बुवाई के छह सप्ताह तक आती है। सूखे हुए पौधे जिनकी पत्तियाँ मरने से पहले थोड़ी पीली हो जाती हैं, खेत में बिखरी हुई बीमारी का संकेत है। तना और जड़ का जोड़ मुलायम होकर थोड़ा सिकुड़ जाता है और सड़ने लगता है। संक्रमित भाग भूरे सफेद हो जाते हैं। ये रोग मिट्टी में ज्यादा नमी , कम मिट्टी पीएच के कारण फलता है । मिट्टी की सतह पर कम गली खाद की उपस्थिति और बुवाई के समय और अंकुर अवस्था में नमी अधिक होना रोग के विकास में सहायक होती है।धान के बाद बोने पर रोग का प्रकोप अधिक होता है।

प्रबंधन

  • गर्मियों में गहरी जुताई करें। बुवाई के समय अधिक नमी से बचें। अंकुरों को अत्यधिक नमी से बचाना चाहिए।
  • पिछली फसल के अवशेषों को बुवाई से पहले और कटाई के बाद नष्ट कर दें।
  • भूमि की तैयारी से पहले सभी अविघटित पदार्थ को खेत से हटा देना चाहिए।
  • कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम और थीरम 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज के मिश्रण से बीज का उपचार करें।
संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली जिसे पूसा संस्थान के नाम से जाना जाता है ने अपने 115 वर्षों के सफर में देश की कृषि को सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हरित क्रांति के जनक के रूप में पूसा संस्थान में विभिन्न फसलों की बहुत सारी किस्में निकाली हैं जिनसे हम अपने देश की जनता को संतुलित आहार दे सकते हैं और अपने किसानों के लिए खेती को लाभदायक बना सकते हैं। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए पूसा सस्थान द्वारा निकाली गई कुछ फसलों की मुख्य किस्में व उनकी विशेषताओं के विषय में हम आपको बता रहे हैं।

संतुलित आहार की उन्नत किस्में

धान

Dhan ki kheti 1-पूसा बासमती 1 जिस की पैदावार 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर है 135 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। 2-पूसा बासमती 1121 जिसकी पैदावार 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर है एवं 140  दिन में पक जाती है। पकाने के दौरान चावल 4 गुना लंबा हो जाता है। 3-पूसा बासमती 6 की पैदावार 55 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। आप पकने में 150 दिन का समय लेती है। 4-पूसा बासमती 1509 का उत्पादन 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है. यह पत्नी है 120 दिन का समय लेती है. जल्दी पकने के कारण बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है. 5-पूसा बासमती 1612 का उत्पादन 51 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है . पकने में 120 दिन का समय लेती है . यह ब्लास्ट प्रतिरोधी किस्म है। 6-पूसा बासमती 1592 का उत्पादन 47.3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है .यह पकने में 120 दिन का समय लेती है .बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है. ये भी पढ़े: धान की उन्नत खेती कैसे करें एवं धान की खेती का सही समय क्या है 7-पूसा बासमती 1609 का उत्पादन 46 कुंटल पकने का समय 120 दिन व बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रति प्रतिरोधी है। 8-पूसा बासमती 1637 का उत्पादन 42 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अवधि 130 दिन है । यह ब्लाइट प्रतिरोधी है. 9-पूसा बासमती 1728 का उत्पादन 41.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकाव  अवधि 140 दिन है। वह किसी भी बैक्टीरियल ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है। 10-पूसा बासमती 1718 का उत्पादन 46.4 कुंटल प्रति हेक्टेयर बोकारो अवधि 135 दिन है। यह किस्म बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोध ही है। 11-पूसा बासमती 1692 का उत्पादन 52.6 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। यह पकने में 115 दिन का समय लेती है। उच्च उत्पादन जल्दी पकने वाली किस्म है।

 गेहूं

gehu ki kheti 1-एचडी 3059 का उत्पादन 42.6 कुंतल प्रति हेक्टेयर व पकाव अवधि 121 दिन है। यह पछेती की किस्में है। 2-एचडी 3086 का उत्पादन 56.3 कुंटल एवं पकाव अवधि 145 दिन है। 3-एचडी 2967 का उत्पादन 45.5 कुंतल प्रति हेक्टेयर। वह पकने में 145 से लेती है। 4-एच डी सीएसडब्ल्यू 18 का उत्पादन 62.8 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। पीला रतुआ प्रतिरोधी 150 दिन में पकती है। 5-एचडी 3117 से 47.9 कुंटल उत्पादन 110 दिन में मिल जाता है । यह किस्म करनाल बंट रतुआ प्रतिरोधी पछेती किस्म है। 6-एचडी 3226 से 57.5 कुंटल उत्पादन 142 दिन में मिल जाता है। 7-एचडी 3237 से 4 कुंतल उत्पादन 145 दिन में मिलता है। ये भी पढ़े: सर्दी में पाला, शीतलहर व ओलावृष्टि से ऐसे बचाएं गेहूं की फसल 8-एच आई 1620 से 49.1 कुंदन उत्पादन के 40 दिन में मिलता है। यह कंम पानी वाली किस्म है। 9-एच आई 1628 से 50.4 कुंतल उत्पादन 147 में मिलता है। 10-एच आई 1621 से 32.8 कुंतल उत्पादन 102 दिन में मिल जाता है यह पछेती किस्म है। 11-एचडी 3271 किस्म से कुंतल उत्पादन 104 दिन में मिलता है यह अति पछेती किस्म है पीला रतुआ प्रतिरोधी है। 12-एचडी 3298 से 39 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 104 दिन में मिल जाता है।

मक्का

Makka ki kheti 1-पूसा एच एम 4 संकर किस्म से 64.2 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है । यह पकने में 87 दिन का समय देती है और इसमें प्रोटीन अत्यधिक है। 2-पूसा सुपर स्वीट कॉर्न संकर सै 93 कुंतल उत्पादन 75 दिन में मिल जाता है। 3-पूसा एचक्यूपीएम 5 संकर 64.7 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 92 दिन में मिलता है। बाजरा (खरीफ) 1-पूसा कंपोजिट 701 से , 80 दिन में 23.5 कुंतल उत्पादन मिलता है। 2-पूसा 1201 संकर से 28.1 कुंतल उत्पादन 80 दिन में मिलता है।

चना

chana ki kheti 1-पूसा 372 से 125 दिन में 19 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है। 2-पूसा 547 से 130 दिन में 18 कुंतल उत्पादन मिलता है।

अरहर

arhar ki kheti 1-अरहर की पूसा 991 किस्म 142 दिन में तैयार होती है व 16.5 कुंदन उत्पादन मिलता है। 2- पूसा 2001 से 18.7 कुंतल उत्पादन 140 दिन में मिलता है। 3- पूसा 2002 किस्म से 143 दिन में 17.7 कुंतल उपज मिलती है। 4-पूसा अरहर 16 से 120 दिन में 19.8 कुंतल उपज मिलती है।

मूंग (खरीफ)

Mung ki kheti 1-पूसा विशाल 65 दिन में 11.5 कुंतल उपज देती है। यह किस्मत एक साथ पकने वाली है। 2- पूसा 9531 से 65 दिन में 11.5 कुंटल उत्पादन मिलता है। यह भी एक साथ पकने वाली किस्म है। 3- पूसा 1431 किस्म से 66 दिन में 12.9 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है।

मसूर

masoor ki dal 1- एल 4076 किस्म 125 दिन में पकने वाली है । इससे 13.5 कुंतल उत्पादन मिलता है। 2- एवं 4147 से ,125 दिन में 15 कुंतल उपज मिलती है। दोनों किस्म  फ्म्यूजेरियम बिल्ट रोग प्रतिरोधी है।

सरसों(रबी)

sarson ki kheti 1-जल्द पकने वाली पीएम 25 किस्म से 105 दिन में 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है। 2-प्रीति बाई के लिए उपयुक्त पीएम 26 किस्म से 126 दिन में 16.4 कुंतल तक उपज मिलती है। 3-41.5% की उच्च तेल मात्रा वाली पीएम 28 किस्म 107 दिन में 19.9 कुंतल तक उपज दे जाती है। 4-कुछ तेल प्रतिशत वाली पीएम 3100 किस्म से 23.3  कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती है ।यह पकने में 142 दिन का समय लेती है। 5- पीएम 32 किस्म से 145 दिन में 27.1 कुंतल उपज दे ती है।

सोयाबीन (खरीफ)

soybean 1-पुसा सोयाबीन 9712 किस्म पीला मोजेक प्रतिरोधी है। 115 दिन में 22.5 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। 2-पूसा 12 किस्म 128 दिन मैं 22.9 कुंतल उपज देती है।

लेखक

राजवीर यादव, फिरोज हुसैन, देवेंद्र के यादव एवं अशोक के सिंह